Top 201 Sanskrit Shlokas With Easy Meaning in Hindi | Gnblogs

Sanskrit Shlokas


Sanskrit Shlokas

(1)

अष्टौ गुणा पुरुषं दीपयंति प्रज्ञा सुशीलत्वदमौ श्रुतं च।
पराक्रमश्चबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च॥

अर्थात् : आठ गुण मनुष्य को सुशोभित करते है – बुद्धि, अच्छा चरित्र, आत्म-संयम, शास्त्रों का अध्ययन, वीरता, कम बोलना, क्षमता और कृतज्ञता के अनुसार दान।

(2)

आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न न लभ्यते।
नीयते स वृथा येन प्रमादः सुमहानहो ॥

अर्थात् : सभी कीमती रत्नों से कीमती जीवन है जिसका एक क्षण भी वापस नहीं पाया जा सकता है। इसलिए इसे फालतू के कार्यों में खर्च करना बहुत बड़ी गलती है।

(3)

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥

अर्थात् : दुर्जन की मित्रता शुरुआत में बड़ी अच्छी होती है और क्रमशः कम होने वाली होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार से दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है।

(4)

यमसमो बन्धु: कृत्वा यं नावसीदति।

अर्थात् : मनुष्य के शरीर में रहने वाला आलस्य ही उनका सबसे बड़ा शत्रु होता है, परिश्रम जैसा दूसरा कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता है।

(5)

परान्नं च परद्रव्यं तथैव च प्रतिग्रहम्।
परस्त्रीं परनिन्दां च मनसा अपि विवर्जयेत।।

अर्थात् : पराया अन्न, पराया धन, दान, पराई स्त्री और दूसरे की निंदा, इनकी इच्छा मनुष्य को कभी नहीं करनी चाहिए

(6)

अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम्, अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:।
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं, हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्॥

अर्थात् : संसार में अनेक शास्त्र, वेद है, बहुत जानने को है लेकिन समय बहुत कम है और विद्या बहुत अधिक है। अतः जो सारभूत है उसका ही सेवन करना चाहिए जैसे हंस जल और दूध में से दूध को ग्रहण कर लेता है

(7)

उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः ।
न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥

अर्थात् : कोई भी काम कड़ी मेहनत के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है सिर्फ सोचने भर से कार्य नहीं होते है, उनके लिए प्रयत्न भी करना पड़ता है। कभी भी सोते हुए शेर के मुंह में हिरण खुद नहीं आ जाता उसे शिकार करना पड़ता है।

(8)

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

अर्थात् : किसी को नहीं पता कि कल क्या होगा इसलिए जो भी कार्य करना है आज ही कर ले यही बुद्धिमान इंसान की निशानी है।

(9)

नास्ति मातृसमा छाय
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रपा॥

अर्थात् : माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं॥

(10)

आपदामापन्तीनां हितोऽप्यायाति हेतुताम् ।
मातृजङ्घा हि वत्सस्य स्तम्भीभवति बन्धने ॥

अर्थात : जब विपत्तियां आने को होती हैं, तो हितकारी भी उनमें कारण बन जाता है। बछड़े को बांधने मे माँ की जांघ ही खम्भे का काम करती है।

(11)

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी

अर्थात : माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।

(12)

सर्वतीर्थमयी  माता  सर्वदेवमयः  पिता।
मातरं पितरं तस्मात्  सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।

अर्थात : मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे।

(13)

न मातु: परदैवतम्।

अर्थात : मां से बढ़कर कोई देव नहीं है।

(14)

आदाय मांसमखिलं स्तनवर्जमंगे
मां मुञ्च वागुरिक याहि कुरु प्रसादम् ।
अद्यापि शष्पकवलग्रहणानभिज्ञः
मद्वर्त्मचञ्चलदृशः शिशवो मदीयाः ।।

अथार्त : हे शिकारी! तुम मेरे शरीर के प्रत्येक भाग को काटकर अलग कर दो। लेकिन,बस मेरे दो स्तनों को छोड़ दो। क्योंकि, मेरा छोटा बच्चा जिसने अभी घास खाना शुरू नहीं किया है। वे बड़ी आकुलता से मेरी प्रतीक्षा कर रहा होगा। अगर मैं उसे दूध नहीं पिलाऊँगी तो वह निश्चित रूप से मर जाएगा । तो कृपया मेरे स्तनों को छोड़ दो।

(15)

तावत्प्रीति भवेत् लोके यावद् दानं प्रदीयते ।
वत्स: क्षीरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम्

अथार्त : लोगों का प्रेम तभी तक रहता है जब तक उनको कुछ मिलता रहता है। मां का दूध सूख जाने के बाद बछड़ा तक उसका साथ छोड़ देता है।

(16)

विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥

अथार्त : दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं।

(17)

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पङ्कजश्रीः।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार॥

अथार्त : रात खत्म होकर दिन आएगा, सूरज फिर उगेगा, कमल फिर खिलेगा- ऐसा कमल में बन्द भँवरा सोच ही रहा था, और हाथी ने कमल को उखाड़ फेंका।

(18)

सुसूक्ष्मेणापि रंध्रेण प्रविश्याभ्यंतरं रिपु:
नाशयेत् च शनै: पश्चात् प्लवं सलिलपूरवत्

अर्थात : नाव में पानी पतले छेद से भीतर आने लगता है और भर कर उसे डूबा देता है, उसी तरह शत्रु को घुसने का छोटा रास्ता या कोई भेद मिल जाए तो उसी से भीतर आ कर वह कबाड़ कर ही देता है।

(19)

महाजनस्य संपर्क: कस्य न उन्नतिकारक:।
मद्मपत्रस्थितं तोयं धत्ते मुक्ताफलश्रियम्

अथार्त : महाजनों गुरुओं के संपर्क से किस की उन्नति नहीं होती। कमल के पत्ते पर पड़ी पानी की बूंद मोती की तरह चमकती है।

(20)

निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।
विषं भवतु मा वास्तु फटाटोपो भयंकरः।

अथार्त : सांप जहरीला न हो पर फुफकारता और फन उठाता रहे तो लोग इतने से ही डर कर भाग जाते हैं। वह इतना भी न करे तो लोग उसकी रीढ़ को जूतों से कुचल कर तोड़ दें।

(21)

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्।।

अर्थात : धर्म का सार तत्व यह है कि जो आप को बुरा लगता है वह काम आप दूसरों के लिए भी न करें ।

(22)

परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्।

अर्थ : धर्म है क्या? धर्म है दूसरों की भलाई। यही पुण्य है। और अधर्म क्या है? यह है दूसरों को पीड़ा पहुंचाना। यही पाप है।

(23)

मानात् वा यदि वा लोभात् क्रोधात् वा यदि वा भयात्।
यो न्यायं अन्यथा ब्रूते स याति नरकं नरः।

अर्थात : कहा गया है कि यदि कोई अहंकार के कारण, लोभ से, क्रोध से या डर से गलत फैसला करता है तो उसे नरक को जाना पड़ता है।

(24)

दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।
आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।

अर्थात : दरिद्रता , रोग, दुख, बंधन और विपदाएं तो अपराध रूपी वृक्ष के फल हैं। इन फलों का उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है।

प्रेणादायक संस्कृत श्लोक

(25)

त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्।

अर्थात : कहते हैं कि कुल की भलाई के लिए की किसी एक को छोड़ना पड़े तो उसे छोड़ देना चाहिए। गांव की भलाई के लिए यदि किसी एक परिवार का नुकसान हो रहा हो तो उसे सह लेना चाहिए। जनपद के ऊपर आफत आ जाए और वह किसी एक गांव के नुकसान से टल सकती हो तो उसे भी झेल लेना चाहिए। पर अगर खतरा अपने ऊपर आ पड़े तो सारी दुनिया छोड़ देनी चाहिए।

(26)

नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य क्रियते वने।
विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता॥

अर्थात : सिंह को जंगल का राजा नियुक्त करने के लिए न तो कोई अभिषेक किया जाता है, न कोई संस्कार। अपने गुण और पराक्रम से वह खुद ही मृगेंद्रपद प्राप्त करता है।

(27)

पश्य कर्म वशात्प्राप्तं भोज्यकालेऽपि भोजनम् ।
हस्तोद्यम विना वक्त्रं प्रविशेत न कथंचन । ।

अर्थात : भोजन थाली में परोस कर सामने रखा हो पर जब तक उसे उठा कर मुंह में नहीं डालोगे , वह अपने आप मुंह में तो चला नहीं जाएगा।

(28)

आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

अर्थात : आहार, निद्रा, भय और मैथुन– ये तो इन्सान और पशु में समान है। इन्सान में विशेष केवल धर्म है, अर्थात् बिना धर्म के लोग पशुतुल्य है।

(29)

धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥

अर्थात : धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।

(30)

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥

अर्थात : आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ? !! अथार्त जीवन में इंसान को कुछ प्राप्त करना है तो उसे सबसे पहले आलस वाली प्रवृति का त्याग करना होगा।

(31)

विवादो धनसम्बन्धो याचनं चातिभाषणम् ।
आदानमग्रतः स्थानं मैत्रीभङ्गस्य हेतवः॥

अर्थात : वाद-विवाद, धन के लिये सम्बन्ध बनाना, माँगना, अधिक बोलना, ऋण लेना, आगे निकलने की चाह रखना – यह सब मित्रता के टूटने में कारण बनते हैं।

(32)

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः । 
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है।

(33)

उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्।
मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥ 

अर्थात : उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है। मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता।

(34)

आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति।

अर्थात : इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु, जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीना है।

(35)

शनैः पन्थाः शनैः कन्था शनैः पर्वतलङ्घनम्।
शनैर्विद्या शनैर्वित्तं पञ्चैतनि शनैः शनैः॥

अर्थात : राह धीरे धीरे कटती है, कपड़ा धीरे धीरे बुनता है, पर्वत धीरे धीरे चढा जाता है, विद्या और धन भी धीरे-धीरे प्राप्त होते हैं, ये पाँचों धीरे धीरे ही होते हैं।

(36)

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥

अर्थात : जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।

(37)

आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा । 
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥

अर्थात :- चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही मनुष्य का सबसे बड़ा सहारा होता है।

(48)

न ही कश्चित् विजानाति किं कस्य श्वो भविष्यति।
अतः श्वः करणीयानि कुर्यादद्यैव बुद्धिमान्॥

अर्थात :- कल क्या होगा यह कोई नहीं जानता है इसलिए कल के करने योग्य कार्य को आज कर लेने वाला ही बुद्धिमान है।

Sanskrit Shlokas With Meaning in Hindi

चाणक्य नीति श्लोक

(39)

कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। 
अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥

अर्थात : न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।

(40)

मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। 
दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥

अर्थात : मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।

(41)

दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। 
ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

अर्थात : दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।

(42)

धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। 
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥

अर्थात : जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।

(43)

जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। 
मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥

अर्थात : किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।

(44)

यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। 
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥

अर्थात : जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।

(45)

माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। 
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥

अर्थात : जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।

(46)

आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि। 
आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥

अर्थात : विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु अपनी रक्षा का प्रसन सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।

(47)

लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। 
पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥

अर्थात : जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।

(48)

आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे। 
राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः ॥

अर्थात : जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है ।

(49)

भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना । 
विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥

अर्थात : भोज्य पदाथ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते ।

(50)

निषेवते प्रशस्तानी निन्दितानी न सेवते । 
अनास्तिकः श्रद्धान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥

अर्थात : सद्गुण, शुभ कर्म, भगवान् के प्रति श्रद्धा और विश्वास, यज्ञ, दान, जनकल्याण आदि, ये सब ज्ञानीजन के शुभ- लक्षण होते हैं ।

(51)

क्रोधो हर्षश्च दर्पश्च ह्रीः स्तम्भो मान्यमानिता। 
यमर्थान् नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति क्रोध, अहंकार, दुष्कर्म, अति-उत्साह, स्वार्थ, उद्दंडता इत्यादि दुर्गुणों की और आकर्षित नहीं होते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।

(52)

यस्य कृत्यं न विघ्नन्ति शीतमुष्णं भयं रतिः ।
समृद्धिरसमृद्धिर्वा स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति सरदी-गरमी, अमीरी-गरीबी, प्रेम-धृणा इत्यादि विषय परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता और तटस्थ भाव से
अपना राजधर्म निभाता है, वही सच्चा ज्ञानी है ।

(53)

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थ भते न कामात्।
नासम्पृष्टो व्युपयुङ्क्ते परार्थे तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ॥

अर्थात : ज्ञानी लोग किसी भी विषय को शीघ्र समझ लेते हैं, लेकिन उसे धैर्यपूर्वक देर तक सुनते रहते हैं । किसी भी कार्य को कर्तव्य समझकर करते है, कामना समझकर नहीं और व्यर्थ किसी के विषय में बात नहीं करते ।

(54)

आत्मज्ञानं समारम्भः तितिक्षा धर्मनित्यता ।
यमर्थान्नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो अपने योग्यता से भली-भाँति परिचित हो और उसी के अनुसार कल्याणकारी कार्य करता हो, जिसमें दुःख सहने की शक्ति हो, जो विपरीत स्थिति में भी धर्म-पथ से विमुख नहीं होता, ऐसा व्यक्ति ही सच्चा ज्ञानी कहलाता है ।

(55)

यस्य कृत्यं न जानन्ति मन्त्रं वा मन्त्रितं परे। 
कृतमेवास्य जानन्ति स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : दूसरे लोग जिसके कार्य, व्यवहार, गोपनीयता, सलाह और विचार को कार्य पूरा हो जाने के बाद ही जान पाते हैं, वही व्यक्ति ज्ञानी कहलाता है ।

(56)

यथाशक्ति चिकीर्षन्ति यथाशक्ति च कुर्वते।
न किञ्चिदवमन्यन्ते नराः पण्डितबुद्धयः ॥

अर्थात : विवेकशील और बुद्धिमान व्यक्ति सदैव ये चेष्ठा करते हैं की वे यथाशक्ति कार्य करें और वे वैसा करते भी हैं तथा किसी वस्तु को तुच्छ समझकर उसकी उपेक्षा नहीं करते, वे ही सच्चे ज्ञानी हैं ।

(57)

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् । 
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥

अर्थात : जो व्यक्ति दुर्लभ वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रखते, नाशवान वस्तु के विषय में शोक नहीं करते तथा विपत्ति आ पड़ने पर घबराते नहीं हैं, डटकर उसका सामना करते हैं, वही ज्ञानी हैं ।

(58)

निश्चित्वा यः प्रक्रमते नान्तर्वसति कर्मणः । 
अवन्ध्यकालो वश्यात्मा स वै पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति किसी भी कार्य-व्यवहार को निश्चयपूर्वक आरंभ करता है, उसे बीच में नहीं रोकता, समय को बरबाद नहीं करता तथा अपने मन को नियंत्रण में रखता है, वही ज्ञानी है।

(59)

आर्यकर्मणि रज्यन्ते भूतिकर्माणि कुर्वते।
हितं च नाभ्यसूयन्ति पण्डिता भरतर्षभ ॥

अर्थात : ज्ञानीजन श्रेष्ट कार्य करते हैं । कल्याणकारी व राज्य की उन्नति के कार्य करते हैं । ऐसे लोग अपने हितौषी मैं दोष नही निकालते ।

(60)

न हृष्यत्यात्मसम्माने नावमानेन तप्यते। 
गाङ्गो ह्रद ईवाक्षोभ्यो यः स पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति न तो सम्मान पाकर अहंकार करता है और न अपमान से पीड़ित होता है । जो जलाशय की भाँति सदैव क्षोभरहित और शांत रहता है, वही ज्ञानी है।

(61)

प्रवृत्तवाक् विचित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्। 
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति बोलने की कला में निपुण हो, जिसकी वाणी लोगों को आकर्षित करे, जो किसी भी ग्रंथ की मूल बातों को शीघ्र ग्रहण करके बता सकता हो, जो तर्क-वितर्क में निपुण हो, वही ज्ञानी है ।

(62)

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा। 
असम्भित्रायेमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥

अर्थात : जो व्यक्ति गंथों-शास्त्रों से विद्या ग्रहण कर उसी के अनुरूप अपनी बुद्धि को ढलता है और अपनी बुद्धि का प्रयोग उसी प्राप्त विद्या के अनुरूप ही करता है तथा जो सज्जन पुरुषों की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करता, वही ज्ञानी है ।

(63)

अश्रुतश्च समुत्रद्धो दरिद्रश्य महामनाः। 
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः ॥

अर्थात : बिना पढ़े ही स्वयं को ज्ञानी समझकर अहंकार करने वाला, दरिद्र होकर भी बड़ी-बड़ी योजनाएँ बनाने वाला तथा बैठे-बिठाए धन पाने की कामना करने वाला व्यक्ति मूर्ख कहलाता है ।

(64)

स्वमर्थं यः परित्यज्य परार्थमनुतिष्ठति। 
मिथ्या चरति मित्रार्थे यश्च मूढः स उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति अपना काम छोड़कर दूसरों के काम में हाथ डालता है तथा मित्र के कहने पर उसके गलत कार्यो में उसका साथ देता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(65)

अकामान् कामयति यः कामयानान् परित्यजेत्। 
बलवन्तं च यो द्वेष्टि तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

अर्थात : जो व्यक्ति अपने हितैषियों को त्याग देता है तथा अपने शत्रुओं को गले लगाता है और जो अपने से शक्तिशाली लोगों से शत्रुता रखता है, उसे महामूर्ख कहते हैं।

(66)

अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च । 
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥

अर्थात : जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है । सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(67)

संसारयति कृत्यानि सर्वत्र विचिकित्सते।
चिरं करोति क्षिप्रार्थे स मूढो भरतर्षभ ॥

अर्थात : जो व्यक्ति अनावश्यक कर्म करता है, सभी को संदेह की दृष्टि से देखता है, आवश्यक और शीघ्र करने वाले कार्यो को विलंब से करता है, वह मूर्ख कहलाता है ।

(68)

अनाहूत: प्रविशति अपृष्टो बहु भाषेते ।
अविश्चस्ते विश्चसिति मूढचेता नराधम: ॥

अर्थात : मूर्ख व्यक्ति बिना आज्ञा लिए किसी के भी कक्ष में प्रवेश करता है, सलाह माँगे बिना अपनी बात थोपता है तथा अविश्वसनीय व्यक्ति पर भरोसा करता है ।

(69)

परं क्षिपति दोषेण वर्त्तमानः स्वयं तथा । 
यश्च क्रुध्यत्यनीशानः स च मूढतमो नरः ॥

अर्थात : जो अपनी गलती को दूसरे की गलती बताकर स्वयं को बुद्धिमान दरशाता है तथा अक्षम होते हुए भी क्रुद्ध होता है, वह महामूर्ख कहलाता है ।

Best Slokas in Sanskrit Ih Hindi

(70)

अर्थम् महान्तमासाद्य विद्यामैश्वर्यमेव वा। 
विचरत्यसमुन्नद्धो य: स पंडित उच्यते ॥

अर्थात : जो व्यक्ति विपुल धन-संपत्ति, ज्ञान, ऐश्वर्य, श्री इत्यादि को पाकर भी अहंकार नहीं करता, वह ज्ञानी कहलाता है ।


(71)

एकः सम्पत्रमश्नाति वस्त्रे वासश्च शोभनम् । 
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः ॥

अर्थात : जो व्यक्ति स्वार्थी है, कीमती वस्त्र, स्वादिष्ट व्यंजन, सुख-ऐश्वर्य की वस्तुओं का उपभोग स्वयं करता है, उन्हें जरूरतमंदों में नहीं बाटँता-उससे बढ़कर क्रूर व्यक्ति कौन होगा?

(72)

एक: पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजन:। 
भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्ता दोषेण लिप्यते ॥

अर्थात : व्यक्ति अकेला पाप-कर्म करता है, लेकिन उसके तात्कालिक सुख-लाभ बहुत से लोग उपभोग करते हैं और आनंदित होते हैं । बाद में सुख-भोगी तो पाप-मुक्त हो जाते हैं, लेकिन कर्ता पाप-कर्मों की सजा पाता है ।

(73)

एकं हन्यान्न वा हन्यादिषुर्मुक्तो धनुष्मता। 
बुद्धिर्बुद्धिमतोत्सृष्टा हन्याद् राष्ट्रम सराजकम् ॥

अर्थात : कोई धनुर्धर जब बाण छोड़ता है तो सकता है कि वह बाण किसी को मार दे या न भी मारे, लेकिन जब एक बुद्धिमान कोई गलत निर्णय लेता है तो उससे राजा सहित संपूर्ण राष्ट्र का विनाश हो सकता है ।

(74)

एकमेवाद्वितीयम तद् यद् राजन्नावबुध्यसे। 
सत्यम स्वर्गस्य सोपानम् पारवारस्य नैरिव ॥

अर्थात : नौका में बैठकर ही समुद्र पार किया जा सकता है, इसी प्रकार सत्य की सीढ़ियाँ चढ़कर ही स्वर्ग पहुँचा जा सकता है, इसे समझने का प्रयास करें ।

(75)

एकः क्षमावतां दोषो द्वतीयो नोपपद्यते। 
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥

अर्थात : क्षमाशील व्यक्तियों में क्षमा करने का गुण होता है, लेकिन कुछ लोग इसे उसके अवगुण की तरह देखते हैं । यह अनुचित है ।

(76)

सोऽस्य दोषो न मन्तव्यः क्षमा हि परमं बलम्। 
क्षमा गुणों ह्यशक्तानां शक्तानां भूषणं क्षमा ॥

अर्थात : क्षमा तो वीरों का आभूषण होता है । क्षमाशीलता कमजोर व्यक्ति को भी बलवान बना देती है और वीरों का तो यह भूषण ही है ।

(77)

एको धर्म: परम श्रेय: क्षमैका शान्तिरुक्तमा। 
विद्वैका परमा तृप्तिरहिंसैका सुखावहा ॥

अर्थात : केवल धर्म-मार्ग ही परम कल्याणकारी है, केवल क्षमा ही शांति का सर्वश्रेष्ट उपाय है, केवल ज्ञान ही परम संतोषकारी है तथा केवल अहिंसा ही सुख प्रदान करने वाली है ।

(78)

द्वविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिवं। 
राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चाप्रवासिनम् ॥

अर्थात : जिस प्रकार बिल में रहने वाले मेढक, चूहे आदि जीवों को सर्प खा जाता है, उसी प्रकार शत्रु का विरोध न करने वाले राजा और परदेस गमन से डरने वाले ब्राह्मण को यह समय खा जाता है ।

(79)

द्वे कर्मणी नरः कुर्वन्नस्मिंल्लोके विरोचते। 
अब्रुवं परुषं कश्चित् असतोऽनर्चयंस्तथा ॥

अर्थात : जो व्यक्ति जरा भी कठोर नहीं बोलता हो तथा दुर्जनों का आदर-सत्कार न करता हो, वही इस संसार में सब से आदर-सम्मान पता है ।

(80)

द्वाविमौ कण्टकौ तीक्ष्णौ शरीरपरिशोषिणौ। 
यश्चाधनः कामयते यश्च कुप्यत्यनीश्चरः ॥

अर्थात : निर्धनता एवं अक्षमता के बावजूद धन-संपत्ति की इच्छा तथा अक्षम एवं असमर्थ होने के बावजूद क्रोध करना ये दोनों अवगुण शरीर में काँटों की तरह चुभकर उसे सुखाकर रख देते हैं ।

(81)

द्वाविमौ पुरुषौ राजन स्वर्गस्योपरि तिष्ठत: । 
प्रभुश्च क्षमया युक्तो दरिद्रश्च प्रदानवान् ॥

अर्थात : जो व्यक्ति शक्तिशाली होने पर क्षमाशील हो तथा निर्धन होने पर भी दानशील हो – इन दो व्यक्तियों को स्वर्ग से भी ऊपर स्थान प्राप्त होता है ।

(82)

न्यायार्जितस्य द्रव्यस्य बोद्धव्यौ द्वावतिक्रमौ । 
अपात्रे प्रतिपत्तिश्च पात्रे चाप्रतिपादनम् ॥

अर्थात : न्याय और मेहनत से कमाए धन के ये दो दुरूपयोग कहे गए हैं- एक, कुपात्र को दान देना और दूसरा, सुपात्र को जरूरत पड़ने पर भी दान न देना ।

(83)

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम नाशनमात्मन: । 
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥

अर्थात : काम, क्रोध और लोभ-आत्मा को भ्रष्ट कर देने वाले नरक के तीन द्वार कहे गए हैं । इन तीनों का त्याग श्रेयस्कर है ।

(84)

चत्वारि राज्ञा तु महाबलेना वर्ज्यान्याहु: पण्डितस्तानि विद्यात् । 
अल्पप्रज्ञै: सह मन्त्रं न कुर्यात दीर्घसुत्रै रभसैश्चारणैश्च ॥

अर्थात : अल्प बुद्धि वाले, देरी से कार्य करने वाले, जल्दबाजी करने वाले और चाटुकार लोगों के साथ गुप्त विचार-विमर्श नहीं करना चाहिए । राजा को ऐसे लोगों को पहचानकर उनका परित्याग कर देना चाहिए।

(85)

चत्वारि ते तात गृहे वसन्तु श्रियाभिजुष्टस्य गृहस्थधर्मे । 
वृद्धो ज्ञातिरवसत्रः कुलीनः सखा दरिद्रो भगिनी चानपत्या ॥

अर्थात : परिवार में सुख-शांति और धन-संपत्ति बनाए रखने के लिए बड़े-बूढ़ों, मुसीबत का मारा कुलीन व्यक्ति, गरीब मित्र तथा निस्संतान बहन को आदर सहित स्थान देना चाहिए । इन चारों की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।

(86)

पन्चाग्न्यो मनुष्येण परिचर्या: प्रयत्नत:। 
पिता माताग्निरात्मा च गुरुश्च भरतर्षभ ॥

अर्थात : माता, पिता, अग्नि, आत्मा और गुरु इन्हें पंचाग्नी कहा गया है। मनुष्य को इन पाँच प्रकार की अग्नि की सजगता से सेवा-सुश्रुषा करनी चाहिए । इनकी उपेक्षा करके हानि होती है ।

(87)

पंचैव पूजयन् लोके यश: प्राप्नोति केवलं । 
देवान् पितॄन् मनुष्यांश्च भिक्षून् अतिथि पंचमान् ॥

अर्थात : देवता, पितर, मनुष्य, भिक्षुक तथा अतिथि-इन पाँचों की सदैव सच्चे मन से पूजा-स्तुति करनी चाहिए । इससे यश और सम्मान प्राप्त होता है।

(88)

पंचेन्द्रियस्य मर्त्यस्य छिद्रं चेदेकमिन्द्रियम् । 
ततोऽस्य स्त्रवति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम् ॥

अर्थात : मनुष्य की पाँचों इंद्रियों में यदि एक में भी दोष उत्पन्न हो जाता है तो उससे उस मनुष्य की बुद्धि उसी प्रकार बाहर निकल जाती है, जैसे मशक (जल भरने वाली चमड़े की थैली) के छिद्र से पानी बाहर निकल जाता है । अर्थात् इंद्रियों को वश में न रखने से हानि होती है ।

(89)

षड् दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छिता । 
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोध आलस्यं दीर्घसूत्रता ॥

अर्थात : संसार में उन्नति के अभिलाषी व्यक्तियों को नींद, तंद्रा(ऊँघ), भय, क्रोध, आलस्य तथा देर से काम करने की आदत-इन छह दुर्गुणों को सदा के लिए त्याग देना चाहिए ।

(90)

पंच त्वाऽनुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । 
मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥

अर्थात : पाँच लोग छाया की तरह सदा आपके पीछे लगे रहते हैं । ये पाँच लोग हैं – मित्र, शत्रु, उदासीन, शरण देने वाले और शरणार्थी ।

(91)

षण्णामात्मनि नित्यानामैश्वर्यं योऽधिगच्छति। 
न स पापैः कुतोऽनथैर्युज्यते विजितेन्द्रियः ॥

अर्थात : जो व्यक्ति मन में घर बनाकर रहने वाले काम, क्रोध, लोभ , मोह , मद (अहंकार) तथा मात्सर्य (ईष्या) नामक छह शत्रुओं को जीत लेता है, वह जितेंद्रिय हो जाता है । ऐसा व्यक्ति दोषपूर्ण कार्यों , पाप-कर्मों में लिप्त नहीं होता । वह अनर्थों से बचा रहता है ।

(92)

षडिमान् पुरुषो जह्यात् भिन्नं नावमिवार्णवे अप्रवक्तारं आचार्यं अनध्यायिनम् ऋत्विजम् । 
आरक्षितारं राजानं भार्यां चाऽप्रियवादिनीं ग्रामकामं च गोपालं वनकामं च नापितम्॥

अर्थात : चुप रहने वाले आचार्य, मंत्र न बोलने वाले पंडित, रक्षा में असमर्थ राजा, कड़वा बोलने वाली पत्नी, गाँव में रहने के इच्छुक ग्वाले तथा जंगल में रहने के इच्छुक नाई – इन छह लोगों को वैसे ही त्याग देना चाहिए जैसे छेदवाली नाव को त्याग दिया जाता है ।

(93)

अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्य प्रियवादिनी च ।
वश्यश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

अर्थात : धन प्राप्ति, स्वस्थ जीवन, अनुकूल पत्नी, मीठा बोलने वाली पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र तथा धनाजर्न करने वाली विद्या का ज्ञान से छह बातें संसार में सुख प्रदान करती हैं ।

(94)

षडेव तु गुणाः पुंसा न हातव्याः कदाचन। 
सत्यं दानमनालस्यमनसूया क्षमा धृतिः ॥

अर्थात : व्यक्ति को कभी भी सच्चाई, दानशीलता, निरालस्य, द्वेषहीनता, क्षमाशीलता और धैर्य – इन छह गुणों का त्याग नहीं करना चाहिए ।

(95)

दश धर्मं न जानन्ति धृतराष्ट्र निबोध तान्। 
मत्तः प्रमत्तः उन्मत्तः श्रान्तः क्रुद्धो बुभुक्षितः ॥ 
त्वरमाणश्च लुब्धश्च भीतः कामी च ते दश। 

तस्मादेतेषु सर्वेषु न प्रसज्जेत पण्डितः ॥

अर्थात : दस प्रकार के लोग धर्म-विषयक बातों को महत्त्वहीन समझते हैं । ये लोग हैं – नशे में धुत्त व्यक्ति, लापरवाह, पागल, थका-हारा व्यक्ति, क्रोध, भूख से पीड़ित, जल्दबाज, लालची, डरा हुआ तथा काम पीड़ित व्यक्ति । विवेकशील व्यक्तियों को ऐसे लोगों की संगति से बचना चाहिए । ये सभी विनाश की और ले जाते हैं ।

(96)

आरोग्यमानृण्यमविप्रवासः सद्भिर्मनुष्यैस्सह संप्रयोगः।
स्वप्रत्यया वृत्तिरभीतवासः षट् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥

अर्थात : स्वस्थ रहना, उऋण रहना, परदेश में न रहना, सज्जनों के साथ मेल-जोल, स्वव्यवसाय द्वारा आजीविका चलाना तथा भययुक्त जीवनयापन – ये छह बातें सांसारिक सुख प्रदान करती हैं ।

(97)

ईर्ष्यी घृणी न संतुष्टः क्रोधनो नित्यशङ्कितः।
परभाग्योपजीवी च षडेते नित्यदुःखिताः ॥

अर्थात : ईर्ष्यालु, घृणा करने वाला, असंतोषी, क्रोधी, सदा संदेह करने वाला तथा दूसरों के भाग्य पर जीवन बिताने वाला- ये छह तरह के लोग संसार में सदा दुःखी रहते हैं ।

(98)

अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥

अर्थात : बुद्धि, उच्च कुल, इंद्रियों पर काबू, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, कम बोलना, यथाशक्ति दान देना तथा कृतज्ञता – ये आठ गुण मनुष्य की ख्याति बढ़ाते हैं ।

(99)

सुदुर्बलं नावजानाति कञ्चित् युक्तो रिपुं सेवते बुद्धिपूर्वम् ।
न विग्रहं रोचयते बलस्थैः काले च यो विक्रमते स धीरः ॥

अर्थात : जो किसी कमजोर का अपमान नहीं करता, हमेशा सावधान रहकर बुद्धि-विवेक द्वारा शत्रुओं से निबटता है, बलवानों के साथ जबरन नहीं भिड़ता तथा उचित समय पर शौर्य दिखाता है, वही सच्चा वीर है ।

(100)

प्राप्यापदं न व्यथते कदाचि- दुद्योगमन्विच्छति चाप्रमत्तः।
दुःखं च काले सहते महात्मा धुरन्धरस्तस्य जिताः सप्तनाः ॥

अर्थात : जो व्यक्ति मुसीबत के समय भी कभी विचलित नहीं होता, बल्कि सावधानी से अपने काम में लगा रहता है, विपरीत समय में दुःखों को हँसते-हँसते सह जाता है, उसके सामने शत्रु टिक ही नहीं सकते; वे तूफान में तिनकों के समान उड़कर छितरा जाते हैं ।

जीवन पर संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित – 

प्राचीन काल में भारतवर्ष में बोली जाने वाली भाषा संस्कृत है जिसमें अनगिनत श्लोक है जिन का अध्ययन करके व्यक्ति अपने चरित्र को और भी बलवान बना सकता है और जीवन यापन बेहतर बनाने में उसकी यह संस्कृत श्लोक मदद कर सकते हैं। हमने आमतौर पर अपने स्कूल में संस्कृत तो पड़ी है पर उन श्लोक का जीवन में मतलब आज भी पढ़े तो समझ आता है कि यह भाषा कितनी गहराई से बनाई गई है जिसका अगर कोई भी श्लोक पढ़ा जाए तो जीवन को बेहतर बनाने वाला ही होता है अगर यह भाषा हम अपने दैनिक जीवन में थोड़ा थोड़ा सीखने का प्रयास करें तो हमारा जीवन काफी सरल बन जाएगा क्योंकि माना जाता है कि संस्कृत भाषा से बुद्धि का भी प्रबंध विकास होता है।

आज हम यहां आपके सामने कुछ संस्कृत श्लोक(Sanskrit Shlok) उनके हिंदी अर्थ सहित प्रस्तुत कर रहे हैं और आशा यही रहेगी कि आपके जीवन में इंच लोग की मदद से कुछ बदलाव आए एवं यह जीवन पहले से सरल व शांति दायक बने। अगर आपको कुछ लोग पसंद आए या सभी श्लोक में जिंदगी का सार दिखे तो कृपया इस आर्टिकल को शेयर कीजिए और दी हुई सीखो को अपने जीवन में लाने की कोशिश कीजिए।

1. जीवितं क्षणविनाशिशाश्वतं किमपि नात्र।
अर्थ: यह क्षणभुंगर जीवन में कुछ भी शाश्वत नहीं है।

2. अविश्रामं वहेत् भारं शीतोष्णं च न विन्दति ।
ससन्तोष स्तथा नित्यं त्रीणि शिक्षेत गर्दभात् ॥
अर्थ : विश्राम लिए बिना भार वहन करना, ताप-ठंड ना देखना, सदा संतोष रखना यह तीन चीजें हमें गधे से सीखनी चाहिए।

3. मनःशौचं कर्मशौचं कुलशौचं च भारत ।
देहशौचं च वाक्शौचं शौचं पंञ्चविधं स्मृतम्
अर्थ: मन शौच, कर्म शौच, देश शौच और वाणी शौच यह पांच प्रकार के शौच हैं।

4. जीविताशा बलवती धनाशा दुर्बला मम्।।
अर्थ: मेरी जीवन की आशा बलवती है पर धन की आशा दुर्लभ है।

5. जीवचक्रं भ्रमत्येवं मा धैर्यात्प्रच्युतो भव।
अर्थ: जीवन का चक्र ऐसे ही चलता है इसीलिए धैर्य ना खोए।

6. नो चेज्जातस्य वैफल्यं कास्य हानिरितिः परा।
अर्थ: जीवन की विफलता से बढ़कर क्या हानि होगी।

7. न दाक्षिण्यं न सौशील्यं न कीर्तिःनसेवा नो दया किं जीवनं ते।
अर्थ: ना दान है ना सुशीलता है ना कीर्ति है ना सेवा है ना दया है तो ऐसा जीवन क्या है?

8. यथा चित्तं तथा वाचो यथा वाचस्तथा क्रियाः !
चित्ते वाचि क्रियायांच साधुनामेक्रूपता !!

अर्थ: साधु जन वही बोलते हैं जो उनके चित्र में होता है और जो उनके चित्र में होता है वही उनकी क्रिया में होता है। ऐसे साधु जन के मन वचन एवं क्रिया में समानता होती है।

9. यस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !
तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसियस्तु सञ्चरते देशान् सेवते यस्तु पण्डितान् !तस्य विस्तारिता बुद्धिस्तैलबिन्दुरिवाम्भसि।।

अर्थ: वह व्यक्ति जो भिन्न-भिन्न देशों में भ्रमण करता है एवं विद्वानों की सेवा करता है ऐसे व्यक्ति की बुद्धि उसी तरह बढ़ती है जैसे तेल की बूंद पानी में फैल जाती है।

10. शतेषु जायते शूरः सहस्रेषु च पण्डितः !वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा !!
अर्थ: 100 लोगों में एक शूरवीर होता है, हजार लोगों में एक पंडित(विद्वान) होता है, 10000 लोगों में वक्ता होता है, लाख लोगों में एक दानी होता है।

11. न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि !व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।
अर्थ: जिसे ना चोर चुरा सकता है, ना ही राजा छीन सकता है, ना ही इसे संभालना मुश्किल है, नाही भाइयों में बंटवारा हो सकता है, यह खर्च करने से भरने वाला धन विद्या है जो सर्वश्रेष्ठ है।

12. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः !नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति !!
अर्थ : मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु आलस्य है और मित्र परिश्रम होता है क्योंकि परीक्षण करने वाला कभी दुखी नहीं हो सकता।

13. सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् !वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।।
अर्थ: विवेक में ना रहना सबसे बड़ा दुर्भाग्य है इसलिए बिना सोचे समझे कोई काम नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति सोच समझकर कार्य करता है मां लक्ष्मी स्वयं उसका चुनाव करती है।

14. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
अर्थ: मन ही मनुष्य के मोक्ष तथा बंधन का कारण है।

15. संतोषवत् न किमपि सुखम् अस्ति ॥
अर्थ: संतोष के समान कोई सुख नहीं है।

16. दारिद्रय रोग दुःखानि बंधन व्यसनानि च।आत्मापराध वृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम्।
अर्थ: दरिद्र रोग दुख बंधन और बताएं यह आत्मा रूपी वृक्ष के अपराध का फल है जिसका उपभोग मनुष्य को करना ही पड़ता है।

17. निर्विषेणापि सर्पेण कर्तव्या महती फणा।विषं भवतु वा माऽभूत् फणटोपो भयङ्करः।
अर्थ: सांप जहरीला ना होने पर भी फन जरूर उठाता है, अगर वह ऐसा भी ना करें तो लोग उसकी रीड को जूतों से कुचल कर तोड़ देंगे।

18. अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते !अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः !!
अर्थ: किसी स्थान पर बिन बुलाए चले जाना, बिना पूछे बोलते रहना, किसी व्यक्ति पर विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करना मूर्ख लोगों के लक्षण हैं।

19. षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता !निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता !!
अर्थ: व्यक्ति के बर्बाद होने के छह लक्षण है- नींद, तद्रा, क्रोध, आलस्य एवं काम को टालने की आदत।

20. विद्वत्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन !स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते !!
अर्थ: राजा और विद्वान में कभी तुलना नहीं हो सकती क्योंकि राजा अपने राज्य में पूजा जाता है वही विद्वान जहां जाता है वहां पूजनीय है।

21. जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं !मानोन्नतिं दिशति पापमपा करोति !!
अर्थ: बुद्धि की जटिलता को हरने वाला अच्छे दोस्तों का साथ है। बोली सच बोलने लगती है, महान और उन्नति पड़ती है तथा पाप मिट जाता है।

22. उद्यमेन हि सिध्यन्ति, कार्याणि न मनोरथैः।न हि सुप्तस्य सिंहस्य, प्रविशन्ति मुखे मृगाः॥
अर्थ: परिश्रम से कार्य सिद्ध होते हैं केवल मनोरथ से नहीं। सोते हुए सिंह के मुख में मृग स्वयं ही प्रवेश नहीं करता, उसे अपना शिकार स्वयं ही करना पड़ता है।

23. प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।तस्मात् प्रियं हि वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
अर्थ: प्रिय वचन बोलने से सब जन संतुष्ट होते हैं इसलिए प्रिय वचन ही बोले। प्रिया वचन बोलने से कहां दरिद्रता आती अर्थात प्रवचन बोलने से कहीं नहीं मिलता नहीं आती तो प्रिया वचन बोले।

24. काकचेष्टो बकध्यानी श्वाननिद्रस्तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पञ्चलक्षणः॥

अर्थ: कोई जैसी चेष्टा अगले जैसा ध्यान कुत्ते जैसी निंद्रा तथा कम खाने वाला और ग्रह का त्याग करने वाला यही विद्यार्थी के पांच लक्षण है।

25. सद्भिरेव सहासीत सद्भिः कुर्वीत सङ्गतिम्।सद्भिर्विवादं मैत्री च नासद्भिः किञ्चिदाचरेत्॥
अर्थ: सज्जनों के साथ बैठना, सज्जनों के साथ ही संगति करनी चाहिए। सज्जनों के साथ ही विवाद एवं मित्रता करनी चाहिए सज्जनों के साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिए।

Famous Shlokas in Sanskrit With Their English Translations (Meaning)

  1. “Sarve Bhavantu Sukhinah” – “May all be happy”
  2. “Sarve Santu Niramaya” – “May all be free from illness”
  3. “Sarve Bhadrani Pashyantu” – “May all see what is auspicious”
  4. “Maa Kshudra Vaa Idam Tat” – “Do not let this be a little thing”
  5. “Om Purnamadah Purnamidam” – “That is full, this is full”
  6. “Om Bhur Bhuva Swaha” – “Earth, atmosphere, heaven”
  7. “Om Tat Sat” – “That is true, that is the highest truth”
  8. “Om Asato Maa Sadgamaya” – “Lead me from the unreal to the real”
  9. “Om Shanti Shanti Shanti” – “Peace, peace, peace”
  10. “Om Bhadram Karnebhih” – “Let good be done to us”
  11. “Om Apo Jyotir-Apo Martya” – “Water is the light, death is the mortal”
  12. “Om Shanti Shanti Shanti” – “Peace, peace, peace”
  13. “Aham Brahmasmi” – “I am Brahman”
  14. “Satchitananda Parabrahma” – “Being-Consciousness-Bliss Absolute”
  15. “Tat Tvam Asi” – “That thou art”
  16. “Yato Dharmas Tato Jayah” – “Where there is Dharma, there is victory”
  17. “Aham Prema” – “I am love”
  18. “Sarvesham Svastir Bhavatu” – “May there be well-being for all”
  19. “Om Namo Bhagavate Vasudevaya” – “I bow to Lord Vasudeva”
  20. “Om Sarvesham Svastir Bhavatu” – “May there be well-being for all”

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Disclaimer: ऊपर दिए गए श्लोक का हिंदी अर्थ हमने सामान्य भाषा में बताने की कोशिश की है हम इसका दावा नहीं करते कि यह निश्चित ही श्लोक का हिंदी अवतरण है। हमने इस आर्टिकल की मदद से संस्कृत श्लोक एवं उनके हिंदी अर्थ आप तक पहुंचाने की कोशिश की है और यही हमारा मुख्य उद्देश्य था आशा करते हैं कि आपको श्लोक के हिंदी अर्थ सामान्य भाषा में समझ आए होंगे और आपका जीवन कुछ हद तक पहले से बेहतर बनाने में यह श्लोक मदद करें।


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